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Dosti Shayari
जख्म तलवार के गहरे भी हो
जख्म तलवार के गहरे भी हो
जख्म तलवार के गहरे भी हो तो मिट जाते हैं
लफ्ज तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह
er kasz
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दुश्मन भी दुआ देते हैं मेरी
मुझे कुछ नहीं कहना बस इतनी
मुंह की बात सुने हर कोई
मुझे अपने किरदार पे इतना तो
इन्सान की चाहत है कि उड़ने
अपने कौनकौन से राज को बेपर्दा
तेरा घमंड तो चार दिन का
आरज़ू होनी चाहिये किसी को याद
कभी मंदिर पे बैठते हैं कभी
उस शेर की निगाहों में भी
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