तुम तुम तुम और सिर्फ तुम
एक लम्हा भी सरकता नहीं तुम्हारे बिना
तुम तुम तुम और सिर्फ तुम
एक लम्हा भी सरकता नहीं तुम्हारे बिना
तू जाहिर है लफ्ज़ों में मेरे
मैं गुमनाम हुँ खामोशियों में तेरी
स्याही थोड़ी कम पड़ गई
वर्ना किस्मत तो अपनी भी खूबसूरत लिखी गई थी
खुद को खोने का पता नहीं चला
किसी को पाने की यूँ इन्तहा कर दी मैंने
कट गया पेड़, मगर ताल्लुक की बात थी
बैठे रहे ज़मीन पर वो परिंदे रात भर
मुझे किसी के छोड़ जाने का दुख नहीं
बस कोई ऐसा था जिस से यह उम्मीद ना थी..
सम्भाल के रखना अपनी पीठ को...
शाबाशी " और " खंजर "दोनों वहीं मिलते है ...Er kasz
बुरे हैं ह़म तभी तो ज़ी रहे हैं
अच्छे होते तो द़ुनिया ज़ीने नही देती
डूबी हैं उगंलिया अपने ही लहू मे
ये कांच के टुकड़ों पर भरोसे की सजा है
भुला देंगे तुम को भी ज़रा सबर तो करो,
रग रग में बसे हो, कुछ वक़्त तो लगेगा..!
किसी को मेरे बारे में पता कुछ भी नही
इल्जाम हजारो है और खता कुछ भी नही
मंजिल का नाराज होना भी जायज था
हम भी तो अजनबी राहों से दिल लगा बैठे थे
मोहब्बत के बाद मोहब्बत मुमकिन हे
पर टूट के चाहना सिर्फ एक बार होता हे
आज कुछ नही है मेरे पास लिखने के लिए
शायद मेरे हर लफ्ज़ ने खुद-खुशी कर ली
वहा तक तो साथ चल जहा तक मुमकीन है।
जहा हालात बदल जाये तुम भी बदल जाना
Er kasz