मैंने कब चाहा कि... मैंने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ; ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ; मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर अगर; उस की पलकों से जो टूटे वो सितारा हो जाऊँ; लेकर इक अज़्म उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ; फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ; जब तलक महवे-नज़र हूँ मैं तमाशाई हूँ; टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ; मैं वो बेकार सा पल हूँ न कोइ शब्द न सुर; वह अगर मुझ को रचाले तो हमेशा हो जाऊँ; आगही मेरा मरज़ भी है मुदावा भी है साज़ ; जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ।

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