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न लफ़्ज़ों का लहू निकलता है
न लफ़्ज़ों का लहू निकलता है
न लफ़्ज़ों का लहू निकलता है न किताबें बोल पाती हैं
मेरे दर्द के थे दो गवाह दोनों बे-जुबान निकले
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साथ रोती थी हँसा करती थी
ए खुदाबस इतनी शोहरत बक्शना मेरे
बहुत दर्द छुपा है रात के
: छत टपकती है उसके कच्चे
एक कतरा ही सही एसी नीयत
अपनों से करके किनारा राह के
ना शौहर बनाया न दीवाना बनायाउसे
उसको पाने की ख्वाहिश तो बहुत
मेरे सजदे की दुआएँ तुम क्या
वो फिर से लौट आये थे
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