एक-एक क़तरे का... एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब; ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था; अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू; तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था; गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं; जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था; मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल; हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था; कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब; देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था।

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