किस को क़ातिल मैं कहूँ... किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ; सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था; अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ; दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे; ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ; ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी; लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ।

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