कोई समझाए ये... कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का; आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का; गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों; रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का; चश्म-ए-साकी मुझे हर गम पे याद आती है; रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का; अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे में; ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का; मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ इक़बाल ; इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का।

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