जब भी कश्ती मेरी... जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है; माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है; रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ; रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है; दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं; सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है; रात भर जागते रहने का सिला है शायद; तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है; ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए; कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है; दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें; सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है।

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