तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है; मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है; क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है; कि महफ़िल तो वही है दिलकशी कम होती जाती है; वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा; मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है; वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है; वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है; वही है ज़िन्दगी अपनी जिगर ये हाल है अपना; कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है।

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