निगाहों का मर्कज़... निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँ; मोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ; मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरिया; अज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँ; वही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिर; उसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँ; न जाने कहाँ से न जाने किधर को; बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ; न सूरत न मआनी न पैदा न पिन्हाँ ये किस हुस्न में गुम हुआ जा रहा हूँ।

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