फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था... फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था; सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था; वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू; मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था; रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही; झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था; ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़; वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था; याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी अदीम ; भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।

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