फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया; अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया; हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में; इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया; रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर; यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया; कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से; फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया; इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें; दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया; ख्वाहिश तो थी साजिद मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की; लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया।

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