भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार... भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें; आ मेरे दिल मेरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें; कोई खिड़की नहीं खुलती किसी बाग़ीचे में; साँस लेना भी है दुश्वार कहीं और चलें; तू भी मग़मूम है मैं भी हूँ बहुत अफ़्सुर्दा; दोनों इस दुख से हैं दो-चार कहीं और चलें; ढूँढते हैं कोई सर-सब्ज़ कुशादा सी फ़ज़ा; वक़्त की धुंध के उस पार कहीं और चलें; ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था; उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें; ऐसे हँगामा-ए-महशर में तो दम घुटता है; बातें कुछ करनी हैं इस बार कहीं और चलें।

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