मुझ पर नहीं उठे हैं​...​​ ​ ​ मुझ पर नहीं उठे हैं तो उठकर कहाँ गए​​;​​ मैं शहर में नहीं था तो पत्थर कहाँ गए​​;​​​ ​​​ मैं खुद ही मेज़बान हूँ मेहमान भी हूँ ख़ुद​​;​​ सब लोग मुझको घर पे बुलाकर कहाँ गए​​;​​​ ​ ये कैसी रौशनी है कि एहसास बुझ गया​​;​ ​ हर आँख पूछती है कि मंज़र कहाँ गए​​;​​​​​​ ​ पिछले दिनों की आँधी में गुम्बद तो गिर चुका​​;​अल्लाह जाने सारे कबूतर कहाँ गए​।

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