रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर; वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर; हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में; निगाह-ए-शौक़ धोखे दे रही है रहनुमा हो कर; अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में; ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर; मेरे सज़्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यों नहीं जाती; ये क्या बे-ए तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर; बला से कुछ हो हम एहसान अपनी ख़ू न छोड़ेंगे; हमेशा बेवफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर।

Your Comment Comment Head Icon

Login