वफ़ा के भेस में... वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है; हज़र! के शहर के क़ातिल तबीब-ए-शहर भी है; वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़; जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है; उधर की आग इधर भी पहुँच न जाये कहीं; हवा भी तेज़ है जंगल क़रीब-ए-शहर भी है; अब उसके हिज्र में रोते हैं उस के घायल भी; ख़बर न थी के वो ज़ालिम हबीब-ए-शहर भी है; ये राज़ नारा-ए-मन्सूर ही से हम पे ख़ुला; के चूब-ए-मिम्बर-ए-मस्जिद सलीब-ए-शहर भी है; कड़ी है जंग के अब के मुक़ाबिले पे फ़राज़ ; अमीर-ए-शहर भी है और खतीब-ए-शहर भी है।

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