​​ऐसे चुप है कि ये मंज़िल​...​​​​​​​​ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे​;​​तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे​;​​​​​​​अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ​;​​रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे​;​​​​​कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे​;​​याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे​;​​​ मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं​;​​अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे​;​​​​​आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं फ़राज़ ​;​चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।

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