कुछ मैं भी थक गयी हूँ उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते; कुछ ज़िंदगी के पास भी मोहलत नहीं रही; उसकी एक-एक अदा से झलकने लगा था खलूस; जब मुझ को ही ऐतबार की आदत नहीं रही।
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कुछ मैं भी थक गयी हूँ उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते; कुछ ज़िंदगी के पास भी मोहलत नहीं रही; उसकी एक-एक अदा से झलकने लगा था खलूस; जब मुझ को ही ऐतबार की आदत नहीं रही।
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