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Taarif Shayari
थी वस्ल में भी फ़िक्रएजुदाई तमाम
थी वस्ल में भी फ़िक्रएजुदाई तमाम
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब; वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब।
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सदियों से जागी आँखों को एक
कहाँ आ के रुकने थे रास्ते
ये शमा मेहमान है दो घडी
जाती नहीं आँखों से सूरत तेरी;
पलट कर भी ना देखो और
शायद वो अपना वजूद छोड़ गया
सर्द रातों को सताती है जुदाई
ज़िन्दगी की आखिरी शाम लिखते हैं;
सोचता हूँ कि अब तेरे दिल
हर रोज़ हमें मिलना हर रोज़
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