छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़... छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ; लोग ज़िंदा हैं अजब सूरत-ए-हालात के साथ; फ़ैसला ये तो बहर-हाल तुझे करना है; ज़ेहन के साथ सुलगना है कि जज़्बात के साथ; गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर; एक नई बात निकल आती है हर बात के साथ; अब कि ये सोच के तुम ज़ख़्म-ए-जुदाई देना; दिल भी बुझ जाएगा ढलती हुई इस रात के साथ; तुम वही हो कि जो पहले थे मेरी नज़रों में; क्या इज़ाफ़ा हुआ अतलस ओ बानात के साथ; भेजता रहता है गुम-नाम ख़तों में कुछ फूल; इस क़दर किस को मोहब्बत है मेरी ज़ात के साथ।

ख़ातिर से तेरी याद को... ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते; सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते; आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते; अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते; किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल; तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते; परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले; क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते; हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना; दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते; दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त; हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते।

बड़ा वीरान मौसम है... बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ; हर एक जानिब तेरा ग़म है कभी मिलने चले आओ; हमारा दिल किसी गहरी जुदाई के भँवर में है; हमारी आँख भी नम है कभी मिलने चले आओ; मेरे हम-राह अगरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है; मगर जैसे कोई कम है कभी मिलने चले आओ; तुम्हें तो इल्म है मेरे दिल-ए-वहशी के ज़ख़्मों को; तुम्हारा वस्ल मरहम है कभी मिलने चले आओ; अँधेरी रात की गहरी ख़मोशी और तनहा दिल; दिए की लौ भी मद्धम है कभी मिलने चले आओ; हवाओं और फूलों की नई ख़ुशबू बताती है; तेरे आने का मौसम है कभी मिलने चले आओ।

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम; उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम; रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये; वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम; होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी; इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम; बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द; तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम; भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती; उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम; हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ फ़िराक़ ; मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम।

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म... तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते है; किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते है; हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते है; तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते है; हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है; जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं; सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन; तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं; वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी; फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं; दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है; तो फ़ैज़ दिल में सितारे उतरने लगते है।

तुम्हारे जैसे लोग जबसे... तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहे; उसे ये गम है शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बहुत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे।

मेरी रातों की राहत दिन के इत्मिनान ले जाना; तुम्हारे काम आ जायेगा यह सामान ले जाना; तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई; तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना; शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर चुन लो; अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना; तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते; पुरानी दोस्ती है की कुछ पहचान ले जाना; इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का; तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना; अगर थोड़ी बहुत है शायरी से उनको दिलचस्पी; तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना।

मेरी रातों की राहत दिन के इत्मिनान ले जाना; तुम्हारे काम आ जायेगा यह सामान ले जाना; तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई; तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना; शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर चुन लो; अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना; तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते; पुरानी दोस्ती है की कुछ पहचान ले जाना; इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का; तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना; अगर थोड़ी बहुत है शायरी से उनको दिलचस्पी; तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना।

मिली दौलत मिली शोहरत मिली दौलत मिली शोहरत मिला है मान उसको क्यों; मौका जानकर अपनी जो बात बदल जाता है; किसी का दर्द पाने की तमन्ना जब कभी उपजे; जीने का नजरिया फिर उसका बदल जाता है; चेहरे की हकीकत को समझ जाओ तो अच्छा है; तन्हाई के आलम में ये अक्सर बदल जाता है; किसको दोस्त माने हम और किसको गैर कह दें हम; जरुरत पर सभी का जब हुलिया बदल जाता है; दिल भी यार पागल है ना जाने दीन दुनिया को; किसी पत्थर की मूरत पर अक्सर मचल जाता है; क्या बताएं आपको हम अपने दिल की दास्ताँ; जितना दर्द मिलता है ये उतना संभल जाता है।

दूर से आये थे... दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम; बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम; मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं; दिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हम; हमको फँसना था क़फ़ज़ में क्या गिला सय्याद का; बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम; बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल; अब कहाँ ले जा कर बिठाऐं ऐसे दीवाने को हम; ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई; अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम; क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ए नज़ीर ; ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम।

कब वो ज़ाहिर होगा... कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे; जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे; रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख होंठ; एक दो पल के लिए गुलदान कर देगा मुझे; रूह फूँकेगा मोहब्बत की मेरे पैकर में वो; फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे; ख़्वाहिशों का खून बहाएगा सर-ए-बाज़ार-ए-शौक़; और मुकम्मल बे-ए-सर-ओ-सामान कर देगा मुझे; एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़; रफ़्ता रफ़्ता इस क़दर सुनसान कर देगा मुझे; या तो मुझ से वो छुड़ा देगा ग़ज़ल-गोई ज़फ़र ; या किसी दिन साहब-ए-दीवान कर देगा मुझे।

बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है; जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है; कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया; हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है; तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने; मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है; कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ; जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है; डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ; अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है।

बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है; जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है; कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया; हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है; तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने; मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है; कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ; जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है; डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ; अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है।

भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं; मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं; गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं; सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं; इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की; तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं; महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई; इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं; टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से; जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं; ख़ामोश अमानत है कुछ उफ़ भी नहीं करता; क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं।

तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ; हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं; तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था; मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ; सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ; वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल; यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ; दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता; मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ; एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद; हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ।