मुझे मालुम है संगेदिल मुझे मालुम है संगेदिल तुझे इस बात का डर है; कि तेरी बेवफ़ाई का चर्चा मैं आम कर दूंगा; न आए रक़ीबों के तसव्वुर में कभी सादिक ; मैं अपने नामों को कुछ इस तरह बदनाम कर दूंगा; जब साथ में मिल जाए ख़ाक मेरी; जब तुझसे जुदा में हो जाऊं; जब हो जाए मय्यत दफ़न मेरी; जब गहरी नींद में मैं सो जाऊं; तुम आके मेरी तुरबत पे दीप जला जाना; ज़रा साथ उनके संगदिल तुम; आंखों से मोती बरसाना; फिर कब्र से लिपट के सादिक की; तुम दिल का हाल सुना जाना।

इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया; ऐ ख़याल-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया; ज़र्रे ज़र्रे ने मेरा अफ़्साना सुन कर दाद दी; मैंने वहशत में जहाँ को तेरा शैदा कर दिया; तूर पर राह-ए-वफ़ा में बो दिए काँटे कलीम; इश्क़ की वुसअत को मस्दूद-ए-तक़ाज़ा कर दिया; बिस्तर-ए-मशरिक़ से सूरज ने उठाया अपना सर; किस ने ये महफ़िल में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-यक्ता कर दिया; मुद्दा-ए-दिल कहूँ एहसान किस उम्मीद पर; वो जो चाहेंगे करेंगे और जो चाहा कर दिया।

नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा; हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा; नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर; नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा; न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको; मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा; ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ; मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा; शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों; ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा; ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर; जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा।

क्या बताऊं कैसा खुद को... क्या बताऊं कैसा खुद को दर-ब-दर मैंने किया; उम्र भर किस-किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया; तू तो नफरत भी न कर पायेगा इस शिद्दत के साथ; जिस बला का प्यार तुझसे बेखबर मैंने किया; कैसे बच्चों को बताऊं रास्तों के पेचो-ख़म; ज़िंदगी भर तो किताबों का सफ़र मैंने किया; शोहरतों कि नज्र कर दी शेर की मासूमियत; उस दिये की रौशनी को दर-ब-दर मैंने किया; चाँद जज्बाती से रिश्ते को बचाने को वसीम ; कैसा-कैसा जब्र अपने आप पर मैंने किया।

कभी अकेले में मिल...​कभी अकेले में मिल कर झंझोड़ दूंगा उसे​;​जहाँ​-​जहाँ से वो टूटा है​ ​जोड़ दूंगा उसे;​​​​​​मुझे छोड़ गया ​ ​ये कमाल है​ ​उस का​;​इरादा मैंने किया था के छोड़ दूंगा उसे​;​पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज​;​कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे​;​​मज़ा चखा के ही माना हूँ ​मैं भी दुनिया को​;​समझ रही थी के ऐसे ही ​छोड़ दूंगा उसे​;​​बचा के रखता है​ खुद को वो मुझ से शीशाबदन​;​उसे ये डर है के तोड़​-​फोड़ दूंगा उसे​।

अब कौन से मौसम से... अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए; बरसात में भी याद जब न उनको हम आए; मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर; भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए; दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा; ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए; बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है; और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए; हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू; बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छनकाए; अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे; रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए।

तेरे ख़याल से... तेरे ख़याल से लौ दे उठी है तन्हाई; शब-ए-फ़िराक़ है या तेरी जलवाआराई; तू किस ख़याल में है ऐ मन्ज़िलों क्के शादाई; उन्हें भी देख जिन्हें रास्ते में नींद आई; पुकार ऐ जरस-ए-कारवान-ए-सुबह-ए-तरब; भटक रहे हैं अँधेरों में तेरे सौदाई; रह-ए-हयात में कुछ मरकले देख लिये; ये और बात तेरी आरज़ू न रास आई; ये सानिहा भी मुहब्बत में बारहा गुज़रा; कि उस ने हाल भी पूछा तो आँख भर आई; फिर उस की याद में दिल बेक़रार है नासिर ; बिछड़ के जिस से हुई शहर शहर रुसवाई।

ले चला जान मेरी... ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा; ऐसा आने से तो बेहतर है ​ना ​आना तेरा; अपने दिल को भी बताऊँ ​ना ​ठिकाना तेरा; सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा; तु जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है; किसके उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा; यह समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रखा है; काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा; अपनी आँखों में भी कौंध गई बिजली सी; हम न समझे कि ये आना है कि जाना तेरा; दाग को यूँ वो मिटाते हैं ये फ़र्माते हैं; तो बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा।

आजकल बज़्म में आते हुए डर लगता है; क्या कहें कुछ भी सुनाते हुए डर लगता है; बात करते थे कभी दिल से दिल मिलाने की; आज तो आँख मिलाते हुए डर लगता है; प्यार करते हैं तुम्हें यह तो सही है लेकिन; तुमको यह बात बताते हुए डर लगता है; जबसे इंन्सानों की बस्ती में बसे हैं यारो; ख़ुद को इंसान बताते हुए डर लगता है; इस क़दर हमको छला दिन के उजालों ने यहाँ; अब कोई दीप जलाते हुए डर लगता है; ये मेहरबान कहीं तेरा क़फन छीन न लें; लाश मरघट पे सजाते हुए डर लगता है।

ज़रूरी काम है लेकिन...ज़रूरी काम है लेकिन रोज़ाना भूल जाता हूँ;मुझे तुम से मोहब्बत है बताना भूल जाता हूँ;तेरी गलियों में फिरना इतना अच्छा लगता है;मैं रास्ता याद रखता हूँ ठिकाना भूल जाता हूँ;बस इतनी बात पर मैं लोगों को अच्छा नहीं लगता;मैं नेकी कर तो देता हूँ जताना भूल जाता हूँ; शरारत लेके आँखों में वो तेरा देखना तौबा; मैं नज़रों पर जमी नज़रें झुकाना भूल जाता हूँ; मोहब्बत कब हुई सब याद है मुझ को; मैं कर के मोहब्बत को भुलाना भूल जाता हूँ।

कभी अकेले में मिल... ​कभी अकेले में मिल कर झंझोड़ दूंगा उसे​; ​जहाँ​-​जहाँ से वो टूटा है​ ​जोड़ दूंगा उसे;​​ ​​​ ​मुझे छोड़ गया ​ ​ये कमाल है​ ​उस का​; ​इरादा मैंने किया था के छोड़ दूंगा उसे​; ​पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज​; ​कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे​; ​ ​मज़ा चखा के ही माना हूँ ​मैं भी दुनिया को​; ​समझ रही थी के ऐसे ही ​छोड़ दूंगा उसे​; ​ ​बचा के रखता है​ खुद को वो मुझ से शीशाबदन​;​ उसे ये डर है के तोड़​-​फोड़ दूंगा उसे​।

बस एक बार किसी ने गले लगाया था; फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था; गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग; वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था; उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद; जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था; वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले; कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था; उसी ने रूप बदल कर जगा दिया आख़िर; जो ज़हर मुझ पे कभी नींद बन के छाया था; ज़फर की ख़ाक में है किस की हसरत-ए-तामीर; ख़याल-ओ-ख़्वाब में किस ने ये घर बनाया था।

कभी मुझ को साथ लेकर... कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चल के; वो बदल गये अचानक मेरी ज़िन्दगी बदल के; हुए जिस पे मेहरबाँ तुम कोई ख़ुशनसीब होगा; मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आँसूओं में ढल के; तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है; वही चम्पई उजाले वही सुरमई धुंधलके; कोई फूल बन गया है कोई चाँद कोई तारा; जो चिराग़ बुझ गये हैं तेरी अंजुमन में जल के; तेरी बेझिझक हँसी से न किसी का दिल हो मैला; ये नगर है आईनों का यहाँ साँस ले सम्भल के!

माने जो कोई बात तो एक बात बहुत है; सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है; दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर एक बात; ऐसे में न जाओ कि अभी रात बहुत है; महीने में किसी रोज़ कहीं चाय के दो कप; इतना है अगर साथ तो फिर साथ बहुत है; रसमन ही सही तुमने चलो ख़ैरियत पूछी; इस दौर में अब इतनी मदारात बहुत है; दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम; कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है; फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे अना से; ऐ दोस्त अभी गर्मी-ए-हालात बहुत है।

जलाया आप हमने... जलाया आप हमने जब्त कर-कर आहे-सोजां को; जिगर को सीना को पहलू को दिल को जिस्म को जां को; हमेशा कुंजे-तन्हाई में मूनिस हम समझते है; अलम को यास को हसरत को बेताबी को हुरमां को; जगह किस-किस को दूं दिल में तेरे हाथों से ऐ कातिल; कटारी को छुरी को बांक को खंजर को पैकां को; न हो जब तू ही ऐ साकी भला फिर क्या करे कोई; हवा को अब्र को गुल को चमन को सहन-ए-बस्तां को; बनाया ऐ जफर खालिक ने जब इंसान से बेहतर; मलक को देव को जिन को परी को हूरो-गिलमां को।