जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा... जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा; बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा; डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती; दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा; मरने वाले फ़ना भी पर्दा है; उठ सके गर तो ये हिजाब उठा; हम तो आँखों का नूर खो बैठे; उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा; आलम-ए-हुस्न-ए-सादगी तौबा; इश्क़ खा खा के पेच-ओ-ताब उठा; होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ एहसान ; ला उठा शीशा-ए-शराब उठा।

कहाँ तक आँख रोएगी... कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा; मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा; तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं; कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा; समन्दर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता; ज़मीं का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा; मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता; कहीं तू बढ़ भी सकता है कहीं तू मुझ से कम होगा।

रची है रतजगो की... रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में; क़तील एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में; वो जिनके आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है; ढड़ाकता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में; ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया; मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में; तलाश उन को हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उन से; वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़न्जर आस्तीनों में।

वो मुझसे मेरी खामोशी... वो मुझसे मेरी खामोशी की वजह पूछता है; कितना पागल है रात के सनाटे की वजह पूछता है; वो मुझसे मेरे आँसू की वजह पूछता है; कितना पागल है बारिश के बरसने की वजह पूछता है; वो मुझसे मेरी मोहब्बत के बारे में पूछता है; कितना पागल है खुद अपने बारे में पूछता है; वो मुझसे मेरी वफ़ा की इंतेहा पूछता है; कितना पागल है साहिल पे रह कर समुद्र की गहराई पूछता है।

​क्यूँ तबीअत कहीं​...​​​​क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं​;​​​दोस्ती तो उदास करती नहीं​;​​​​​हम हमेशा के सैर-चश्म सही​;​​​तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं​;​​​​​शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह​;​​​कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं​;​​​​ये मोहब्बत है सुन ज़माने सुन​;​​​ इतनी आसानियों से मरती नहीं​;​​जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़​;​जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं​।

ये आरज़ू थी... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए- आतिश ; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते।

वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें; वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें; ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई; ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें; कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़; अगर चिराग़ बुझा दिल जला लिया मैनें; कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था; वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें; क़तील जिसकी अदावत में एक प्यार भी था; उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें।

ओंस की बूँद सी... ओंस की बूँद सी होती है बेटियाँ; स्पर्श खुरदरा हो तो रोती हैं बेटियाँ; रोशन करेगा बेटा तो एक कुल को; दो दो कुलो की लाज होती हैं बेटियाँ; कोई नहीं है एक दूसरे से कम; हीरा अगर है बेटा; तो सुच्चा मोती है बेटियाँ; काँटों की राह पर यह खुद ही चलती हैं; औरों के लिए फूल होती हैं बेटियाँ; विधि का विधान है; यही दुनियाँ की रस्म है; मुट्ठी भर नीर सी होती हैं बेटियाँ।

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते; हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते; ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या; हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते; इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले; वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते; इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत; ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते; अहबाब पे दीवाने असद कैसा भरोसा; ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते।

तेरे पास आने को... तेरे पास आने को जी चाहता है; नए ज़ख़्म खाने को जी चाहता है; ज़माना मेरा आज़माया हुआ है; तुझे आज़माने को जी चाहता है; वही बात रह-रह के याद आ रही है; जिसे भूल जाने को जी चाहता है; लबों पे मेरे खिलते है तब्बसुम; जब आंसू बहाने को जी चाहता है।; तक्कल्लुफ़ ना कर आज बर्क-ए-तस्सल्ली; नशेमन जलाने को जी चाहता है; रुख-ए-जिंदगी से नक़ाबीन उलट कर; हकीकत दिखाने को जी चाहता है।

जब भी मिलता जब भी मिलता हूँ तुझसे; मेरी ज़िन्दगी उदास हो जाती है; मेरी हर धड़कन ख़ामोश हो जाती है; तेरी सुरमई आँखों की कसम; मेरी मोहब्बत सरे-बाज़ार बदनाम हो जाती है; तेरी धुंधली यादें सरे-आम मुझको डसती हैं; जब भी चेहरे से तू नक़ाब उठाती है; तेरे दर्द का सिलसिला तब तक चलता रहता है; जब तक तू न नज़रें मेरे चेहरे से हटाती है; जब भी मिलता हूँ तुझसे; मेरी ज़िन्दगी उदास हो जाती है।

ज़िन्दगी से यही... ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे; तू बहुत देर से मिला है मुझे; हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं; इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे; तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल; हार जाने का हौसला है मुझे; लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ; कत्ल होने का हौसला है मुझे; दिल धडकता नहीं सुलगता है; वो जो ख्वाहिश थी आबला है मुझे; कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़; क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे।

और सब भूल गए... और सब भूल गए हर्फ-ए-सदाक़त लिखना; रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना; न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको; हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना; हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा; शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना; दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए; सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना; कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब जालिब ; रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना।

दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं; सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं; हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे; हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं; बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं; इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं; ये मैकदा है वो मस्जिद है वो है बुत-खाना; कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं; हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे; यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं।

किसी ने तेरा बुरा भी... किसी ने तेरा बुरा भला कब किया; किया खुदी का अपना तूने जब किया; बस थोड़े से में सीखी पूरी जिंदगी; पूरा किया पर उसे जो भी जब किया; जो टालते गए वो टालते गए; उसी ने किया जिसने अब किया; हसीं प्यार रश्क अश्क एक में; या खुदा! ये तूने क्या गज़ब किया; हमको तो कभी मिला जवाब ना; ताउम्र जिंदगी से है तलब किया; मजाल हँसने की वजह कोई नहीं; पर रोने का भी बताएँ सबब किया।