हुस्न वाले खूब वफाओं का सिला देते हैं
हर मोड़ पर एक जख्म नया देते हैं
ऐ दोस्त इस जहान में कोई अपना नहीं
जब आग लगती है तो पत्ते भी हवा देते हैं

हमें देख के चेहरा घुमा लेते है; मेरे नाम पे नज़रे फिरा लेते है; पर एक बात पे ना चले जोर उनका; करते है बातें गैरों की लेकिन; कसम मेरे नाम की खा लेते है।

यह जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं; कभी सबा को कभी नामबर को देखते हैं; वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है; कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं!

मुझे उसके पहलू में आश्यिाना ना मिला
उसकी जुलफों छाओं में ठिकाना ना मिला
कह दिया उसने मुझको बेवफा
जब मुझको छोडने का उसे कोई बहाना ना मिला

याद तेरी आती है क्यो.यू तड़पाती है क्यो दूर हे जब जाना था.. फिर रूलाती है क्यो
दर्द हुआ है ऐसे जले पे नमक जैसे खुद को भी जानता नही, तुझे भूलाऊ कैसे

रुलाने वाले आखिर हमें रुला देंगे
ज़हर दे के गहरी निंद सुला देंगे
फिर भी कोई गम ना होगा हमें
गम तो तब होगा जब आप हमें
साथ छोडने को कह देंगे

आँखो के रास्ते से दिल में उतर गये हो
खुशबु की तरह आँगन-आँगन बिखर गए हो
तेरा जिस्म जब से नजरो ने छू लिया है
तुम भी निखर गये हो, हम भी निखर गए हैं

कहां से लाऊं हुनर उसे मनाने का
कोई जबाब नही था उसके रूठ जानेका
मोहब्बत मे सजा मुझे ही मिलती है क्योकि
जुर्म मैने किया था उससे दिल लगाने का

रोती हुई आँखो मे इंतेज़ार होता है
ना चाहते हुए भी प्यार होता है
क्यू देखते है हम वो सपने
जिनके टूटने पर भी उनके सच होने का इंतेज़ार होता है

दिल जित ले वो नजर हम भी रखते है
भीड़ में नजर आये वो असर हम भी रखते है
यु तो वादा किया है किसीसे मुस्कुराने का वरना आँखों में समंदर हम भी रखते है

मंज़िलें मुश्किल थी पर हम खोए नही
दर्द था दिल मे पर हम रोए नही
कोई नही आज हमारा आज जो पूछे हमसे
जाग रहे हो किसी के लिए
या किसी के लिए सोए नही

रोती हुई आँखो मे इंतेज़ार होता है
ना चाहते हुए भी प्यार होता है
क्यू देखते है हम वो सपने
जिनके टूटने पर भी उनके सच होने का इंतेज़ार होता है?

भर आई मेरी आँखे जब उसका नाम आया
इश्क नाकाम सही फिर भी बहुत काम आया
हमने महोब्बत में ऐसी भी गुज़ारी रातें
जब तक आँसु ना बहे दिल को ना आराम आया

बस यही दो मसले ज़िन्दगी भर ना हल हुए
ना नींद पूरी हुई ना ख्वाब मुकम्मल हुए
वक़्त ने कहा काश थोड़ा और सब्र होता
सब्र ने कहा काश थोड़ा और वक़्त होता

कुछ मैं भी थक गयी हूँ उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते; कुछ ज़िंदगी के पास भी मोहलत नहीं रही; उसकी एक-एक अदा से झलकने लगा था खलूस; जब मुझ को ही ऐतबार की आदत नहीं रही।