शायद यह वक़्त हम से कोई चाल चल गया; रिश्ता वफ़ा का और ही रंगों में ढ़ल गया; अश्क़ों की चाँदनी से थी बेहतर वो धूप ही; चलो उसी मोड़ से शुरू करें फिर से जिंदगी ।

जिंदगी हर हाल में ढलती है; जैसे रेत मुट्ठी से फिसलती है; गिले शिकवे कितने भी हो; लेकिन हर हाल में हँसते रहना; क्योंकि जिंदगी ठोकरों से ही संभलती है।

आरज़ू होनी चाहिये किसी को याद करने की,
लम्हें तो अपने आप ही मिल जाते हैं ..
कौन पूछता है पिंजरे में बंद पंछियों को,
याद वही आते हैं, जो उड़ जाते हैं ….!

जरुरत के मुताबिक जिंदगी जिओ - ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं। क्योंकि जरुरत तो फकीरों की भी पूरी हो जाती है; और ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती है।

जवानी भी जिंदगी का क्या दौर होती है; निगाहें भी कम्बख्त दिलों का चोर होती हैं; याद आते ही आज भी मुस्कान दे जाती है; इश्क में इंतज़ार की बात ही कुछ और होती है।

संता: रात में मैंने सपने में देखा कि एक लड़का तुम्हारी किस लेने की कोशिश कर रहा है। जीतो: तो क्या लड़का सफल हुआ? संता: नहीं। जीतो: तो फिर कोई और होगी मैं नहीं।

बहुत कुछ सिखा जाती है ये ज़िंदगी; हँसा के भी रुला जाती है ये ज़िंदगी; जी सको जितना उतना जी लो दोस्तो; क्योंकि बहुत कुछ बाकी रह जाता है और ख़त्म हो जाती है ज़िंदगी।

जीवन में मानव का मुख्य कार्य स्वयं का सृजन करना है वह बनना जिसकी उसमें संभाव्यता है। उसके प्रयास का सबसे महत्वपूर्ण उत्पाद उसका स्वयं का व्यक्तित्व होता है।

सारस की तरह एक बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए और अपने उद्देश्य को स्थान की जानकारी समय और योग्यता के अनुसार प्राप्त करना चाहिए।

भगवान हमारे निर्माता ने हमारे मस्तिष्क और व्यक्तित्व में असीमित शक्तियां और क्षमताएं दी हैं। भगवान की प्रार्थना हमें इन शक्तियों को विकसित करने में मदद करती है।

भरी महफिल में तन्हा मुझे रहना सिखा दिया ! तेरे प्यार ने दुनिया को झूठा कहना सिखा दिया ! किसी दर्द या ख़ुशी का एहसास नहीं है अब तो ! सब कुछ ज़िन्दगी ने चुप -चाप सहना सिखा दिया !

​क्या तुम ज़िन्दगी से ऊब चुके हो? तो फिर खुद को किसी ऐसे काम में झोंक दो जिसमे दिल से यकीन रखते हो उसके लिए जियो उसके लिए मरो और तुम वो ख़ुशी पा जोहे जो तुम्हे लगता था की कभी तुम्हारी नहीं हो सकती​।

देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना करीब से कि चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से; इस रेंगती हयात का कब तक उठाएं भार बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से; कुछ इस तरह दिया है ज़िन्दगी ने हमारा साथ जैसे कोई निभा रहा हो रकीब से; ए रूह-ए-असर जाग कहाँ सो रही है तू आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से!