तेरी कमी का ऐहसास होता है,
तेरे दूर जाने से दिल रोता है,
किसे सुनाऐ अपना हाल-ऐ-दिल,
जिसे देखो वो यही कहता है
जो होता है अच्छे के लिऐ होता है...... Er kasz
तेरी कमी का ऐहसास होता है,
तेरे दूर जाने से दिल रोता है,
किसे सुनाऐ अपना हाल-ऐ-दिल,
जिसे देखो वो यही कहता है
जो होता है अच्छे के लिऐ होता है...... Er kasz
तुम ने चाहा ही नहीं हालात बदल सकते थे; तेरे आाँसू मेरी आँखों से निकल सकते थे; तुम तो ठहरे रहे झील के पानी की तरह; दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे।
एक मुद्दत से मेरे हाल से बेगाना है; जाने ज़ालिम ने किस बात का बुरा माना है; मैं जो ज़िद्दी हूँ तो वो भी है अना का कैदी; मेरे कहने पे कहाँ उसने चले आना है।
जो बात मुनासिब है वो हासिल नहीं करते; जो अपनी गिरह में हैं वो खो भी रहे हैं; बे-इल्म भी हम लोग हैं ग़फ़लत भी है तेरी; अफ़सोस के अंधे भी हैं और सो भी रहे हैं।
तू छोड़ दे कोशिशें इंसानो को पहचानने की; यहाँ ज़रूरत के हिसाब से सब बदलते नक़ाब हैं; अपने गुनाहों पर सौ पर्दे डाल कर; हर शख्स कहता है ज़माना बड़ा खराब है।
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह; वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह; किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी; छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह।
दिल पे क्या गुज़री वो अनजान क्या जाने; प्यार किसे कहते है वो नादान क्या जाने; हवा के साथ उड़ गया घर इस परिंदे का; कैसे बना था घोसला वो तूफान क्या जाने।
किसी ने हमें रुलाया तो क्या बुरा किया;दिल को दुखाया तो क्या बुरा किया;हम तो पहले से ही तन्हा थे;किसी ने एहसास दिलाया तो क्या बुरा किया।
हसीनों ने हसीन बन कर गुनाह किया; औरों को तो क्या हमको भी तबाह किया; पेश किया जब ग़ज़लों में हमने उनकी बेवफाई को; औरों ने तो क्या उन्होंने भी वाह - वाह किया।
मैं दीवाना हूँ तेरा मुझे इंकार नहीं; कैसे कह दूं कि मुझे तुमसे प्यार नहीं; कुछ शरारत तो तेरी नज़रों में भी थी; मैं अकेला ही तो इसका गुनहगार नहीं।
जिस से चाहा था बिखरने से बचा ले मुझको; कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को; मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है; फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको।
रोती हुई आँखो मे इंतेज़ार होता है;ना चाहते हुए भी प्यार होता है;क्यू देखते है हम वो सपने;जिनके टूटने पर भी उनके सच होने;का इंतेज़ार होता है।
उसका चेहरा भी सुनाता हैं कहानी उसकी; चाहता हूँ कि सुनूं उससे जुबानी उसकी; वो सितमगर है तो अब उससे शिकायत कैसी; क्योंकि सितम करना भी आदत हैं पुरानी उसकी!
सुकून मिल गया मुझको बदनाम होकर; आपके हर एक इल्ज़ाम पे यूँ बेजुबान होकर; लोग पढ़ ही लेंगें आपकी आँखों में मेरी मोहब्बत; चाहे कर दो इनकार यूँ ही अनजान होकर।
हम तो मौजूद थे रात में उजालों की तरह; लोग निकले ही नहीं ढूंढने वालों की तरह; दिल तो क्या हम रूह में भी उतर जाते; उस ने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह।