एहसान जताना जाने कैसे सीख लिया; मोहब्बत जताते तो कुछ और बात थी।

उसे किसी की मोहब्बत का ऐतबार नहीं; उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है।

तुमसे मिला था प्यार कुछ अच्छे नसीब थे; हम उन दिनों अमीर थे जब तुम गरीब थे।

अब भी इल्जाम-ए-मोहब्बत है हमारे सिर पर; अब तो बनती भी नहीं यार हमारी उसकी।

हम आह भी भरते हैं तो बदनाम होते हैं; वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता!

हमने भी कभी चाहा था एक ऐसे शख्स को; जो आइने से भी नाज़ुक था मगर था पत्थर का।

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया​;​कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।

जिन के आंगन में अमीरी का शजर लगता है;​​​ उन का हर एब भी जमानें को हुनर लगता है।

काश की खुदा ने दिल पत्थर के बनाये होते; तोड़ने वाले के हाथों में जख्म तो आए होते।

चीखें भी यहाँ गौर से सुनता नहीं कोई; अरे किस शहर में तुम शेर सुनाने चले आये! फ़राज़

जब भी सुलझाना चाहा जिंदगी के सवालों को मैंने; हर एक सवाल में जिंदगी मेरी उलझती चली गई।

ये संगदिलों की दुनिया है; यहाँ संभल के चलना ग़ालिब; यहाँ पलकों पे बिठाया जाता है; नज़रों से गिराने के लिए।

सब फ़साने हैं दुनियादारी के किस से किस का सुकून लूटा है; सच तो ये है कि इस ज़माने में मैं भी झूठा हूँ तू भी झूठा है।

उल्फत में अक्सर ऐसा होता है; आँखे हंसती हैं और दिल रोता है; मानते हो तुम जिसे मंजिल अपनी; हमसफर उनका कोई और होता है!

ज़ख्म देने की आदत नहीं हमको; हम तो आज भी वो एह्साह रखते हैं; बदले-बदले तो आप हैं जनाब; हमारे आलावा सबको याद रखते हैं।