मुझे अपने चंद सवालों... मुझे अपने चंद सवालों का जवाब चाहिए; तुम्हारे दिल में थोड़ी सी जगह चाहिए; तुझ को मेरे सिवा किसी और का ख़याल ना रहे; तेरी ज़िंदगी में मुझको वो मुक़ाम चाहिए; जो वक़्त भी हम ने तेरे बिना गुज़ारे हैं; वापिस मुझे वो अपने शब्-ओ-रोज़ चाहिए; तेरी ज़िंदगी में मेरी क्या अहमियत है रज़ा; सब कुछ छोड़ इस बात का जवाब चाहिए।

काश हम तुम... काश हम तुम अजनबी होते; जिस तरह लोग हुआ करते हैं; बे ताल्लुक से बे तार्रुफ से; काश हम तुम अजनबी होते; बेकरारी ना बे काली होती; ना मुकम्मल ना ज़िंदगी होती; यूँ ना होती अजयातें दिल में; ज़िंदगी भी ना होती मुश्किल में; आंसुओं से ना दोस्ती करते; अपने दिल से ना दुश्मनी करते; दूसरों की तरह हम भी रहते; काश हम तुम अजनबी होते!

हम भी दरिया है... हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है; जिस तरफ़ भी चल पड़ेगे रास्ता हो जाएगा; कितनी सच्चाई से मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया; तु नहीं मेरा तो कोई और हो जाएगा; मैं खूदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तो; ज़हर भी इसमें अगर होगा दवा हो जाएगा; सब उसी के हैं हवा ख़ुश्बु ज़मीनो-आस्माँ; मैं जहाँ भी जाऊँगा उसको पता हो जाएगा।

मेरे क़ाबू में न... मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया; वो मेरा भूलने वाला जो मुझे याद आया; दी मुअज्जिन ने शब-ए-वस्ल अज़ान पिछली रात; हाए कम-बख्त के किस वक्त ख़ुदा याद आया; लीजिए सुनिए अब अफ़साना-ए-फुर्कत मुझ से; आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया; आप की महिफ़ल में सभी कुछ है मगर दाग़ नहीं मुझ को वो ख़ाना-ख़राब आज बहुत याद आया।

तेरे इश्क़ की इन्तहा... तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ; मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ; सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी; कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ; ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को; कि मैं आप का सामना चाहता हूँ; कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल; चिराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ; भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी; बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ।

तेरे इश्क़ की इंतिहा... तेरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ; मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ; सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी; कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ; ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को; कि मैं आप का सामना चाहता हूँ; कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल; चिराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ; भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी; बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ।

एक ग़ज़ल उस पे... एक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाज़ा है बहुत; इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का धड़ाका है बहुत; रात हो दिन हो गफलत हो कि बेदर्दी हो; उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत; तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी; कभी दरिया नहीं काफी कभी क़तरा है बहुत; मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह; मैने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत।

न सियो होंठ... न सियो होंठ न ख़्वाबों में सदा दो हम को; मस्लेहत का ये तकाज़ा है भुला दो हम को; हम हक़ीक़त हैं तो तसलीम न करने का सबब; हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को; शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक; सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को; मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर; बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को।

रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हुईं... रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हुईं तेरी राह में; हद है कि ख़ुद ज़लील हूँ अपनी निगाह में; मैं भी कहूँगा देंगे जो आज़ा गवाहियाँ; या रब यह सब शरीक थे मेरे गुनाह में; थी जुज़वे-नातवाँ किसी ज़र्रे में मिल गई; हस्ती का क्या वजूद तेरी जलवागाह में; ऐ शाद और कुछ न मिला जब बराये नज़्र; शर्मिंदगी को लेके चले बारगाह में।

अपने हाथों की... अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको; मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको; मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने; ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको; ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन; कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।; बादाह फिर बादाह है मैं ज़हर भी पी जाऊँ क़तील ; शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।

​​​हवा बन कर​​...​​​ हवा बन कर बिखरने से​;​ उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;​​​​​ मेरे जीने या मरने से​;​ उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;​​​ उसे तो अपनी खुशियों से​;​ ज़रा भी फुर्सत नहीं मिलती​;​​​ मेरे ग़म के उभरने से​;​ उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;​​​ उस शख्स की यादों में​;​ मैं चाहे रोते रहूँ लेकिन​;​​​ ​मेरे ऐसा करने से​;​ उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​। ​

​हवा का ज़ोर भी​...​​​​हवा का ज़ोर भी काफ़ी बहाना होता है​;​​​​अगर चिराग किसी को जलाना होता है​;​​​ज़ुबानी दाग़ बहुत लोग करते रहते हैं​;​​​​जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है​;​​​हमारे शहर में ये कौन अजनबी आया​;​​​​कि रोज़ सफ़र पे रवाना होता है​;​​​कि तू भी याद नहीं आता ये तो होना था​;​​​गए दिनों को सभी को भुलाना होता है।

अजब अपना हाल होता... अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता; कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता; न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में; कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता; ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती; न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता; तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते; अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता।

लोग हर मोड़ पे... लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं; इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं; मैं न जुगनू हूँ दिया हूँ न कोई तारा हूँ; रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं; नींद से मेरा त अल्लुक़ ही नहीं बरसों से; ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं; मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए; और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं।

कुछ दिन से इंतज़ारे... कुछ दिन से इंतज़ारे-सवाले-दिगर में है; वह मुज़्महिल हया जो किसी की नज़र में है; सीखी यहीं मिरे दिले-काफ़िर ने बंदगी; रब्बे-करीम है तो तेरी रहगुज़र में है; माज़ी में जो मज़ा मेरी शामो-सहर में था; अब वह फ़क़त तसव्वुरे-शामो-सहर में है; क्या जाने किसको किससे है अब दाद की तलब; वह ग़म जो मेरे दिल में है तेरी नज़र में है।