अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है; वो जिस के नाम से होते न थे जुदा मेरे लब।
अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है; वो जिस के नाम से होते न थे जुदा मेरे लब।
घर बना के मेरे दिल में वो छोड़ गया; अब ना खुद रहता है ना किसी और को बसने देता है!
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी; फ़राज़ तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
तुझे फुर्सत न मिली पढ़ने की वरना; हम तो तेरे शहर में बिकते रहे किताबों की तरह।
मेरे ही हाथों पर लिखी है तकदीर मेरी; और मेरी ही तक़दीर पर मेरा बस नहीं चलता।
जो तेरी मुंतज़िर तीन वो आँखें ही बुझ गई; अब क्यों सजा रहा है चिरागों से शाम को।
तकदीर के लिखे पे कभी शिकवा न किया कर; फूल भी तो खुश रहते हैं काँटों की भीड़ में!
सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से;पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला।
लोग तो बेवजह ही खरीदते हैं आईने; आँखें बंद करके भी अपनी हकीकत जानी जा सकती है।
वो दिल में है धडकन में है रूह में है; सिर्फ किस्मत में नहीं तो खुदा से गिला कैसा!
वो मैय्यत पे आए मेरी,और झुक के कान में बोले,
सच में मर गए हो या,कोई नया तमाशा है...!!
उस बुलंदी से तुमने नवाजा क्यों था;गिर कर मैं टूट गया कांच के बर्तन की तरह।
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना करने; हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे।
संग-ए-मरमर से तराशा खुदा ने तेरे बदन को बाकी जो पत्थर बचा उससे तेरा दिल बना दिया।
बस यही बात कि लोगों को ना चाहों दिल से; तज़ुर्बे इस के सिवा उम्र को क्या देते हैं।